परमेश्वर के विषय में प्रश्न

परमेश्वर के विषय में प्रश्न

क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?

परमेश्वर की विशेषताऐं क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?

क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?

बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?

परमेश्वर बुरी चीज़ो को अच्छे लोगों के साथ क्यों होने देता है ?

क्या परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि की ?

परमेश्वर पुराने नियम में और नये नियम में इतने भिन्न क्यों हैं?

इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर प्रेम है ?

क्या परमेश्वर आज भी हम से बात करते हैं ?

किसने परमेश्वर को सृजा है ? परमेश्वर कहाँ से आए?



परमेश्वर के विषय में प्रश्न    
 

क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?


प्रश्न: क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?

उत्तर:
क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? मुझे यह बात काफी रोचक लगा कि इस बहस पर अधिक ध्यान दिया गया। हाल तक के सर्वेक्षण हमें यह बताते हैं कि आज के संसार में ९० प्रतिशत व्यक्ति परमेश्वर या किसी महान शक्ति पर विश्वास रखते हैं । फिर भी यह उत्तरदायित्व उन लोगों पर रखा जाता है जो कि विश्वास करते है कि परमेश्वर का अस्तित्व है कि वो यह प्रमाणित करें कि उसका वास्तविक रूप से कोई अस्तित्व है । मेरे हिसाब से, मैं सोचता हूँ कि इसके विपरीत होना चाहिये था।

यद्यपि, परमेश्वर का अस्तित्व प्रमाणित या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । बाइबल भी यहाँ तक कहती है कि हमें विश्वास के द्वारा यह स्वीकार करना चाहिये कि परमेश्वर का अस्तित्व है, "और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोनी है, क्योंकि परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिये, कि वह है, और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है" (इब्रानियों ११:६) । अगर परमेश्वर की ऐसी इच्छा थी, तो वो प्रकट होता तथा सारे संसार को प्रमाणित कर देता कि उसका अस्तित्व है । परन्तु अगर वो ऐसा करता, तो फिर विश्वास की कोई आवश्यकता ना रहती । "यीशु ने उस से कहा, तूने तो मुझे देखकर विश्वास किया है, धन्य है वे जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया" (यूहन्ना २०:२९)

इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर के आस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है । बाइबल घोषणा करता है, "आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है; और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है । दिन से दिन बातें करता है, और रात को रात ज्ञान सिखाती है । ना तो कोई बोली है और ना कोई भाषा जहाँ उसका शब्द सुनाई नहीं देता है । उसका स्वर सारी पृथ्वी पर गूँज गया है, और उसके वचन जगत की छोर तक पहुँच गए है, "(भजन संहिता १९:१-४) । तारों की ओर देखकर, इस ब्रहमाण्ड की विशालता को समझते हुए, प्रकृति के आश्चर्यों पर गौर करके, सूर्यास्त की सुन्दरता को देखते हुए-यह सारी वस्तुएँ एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर की ओर संकेत करती है । अगर यह काफी नहीं है, तो हमारे स्वयं के हृदयों में भी एक प्रमाण है । सभोपदेशक ३:११ हमें बताता है, "… उसने मनुष्यों के मन में अनादि-अनन्त काल का ज्ञान उत्पन्न किया है ... "। हमारे अपने स्वयं में गहराई तक कोई ऐसी चीज़ है जो यह पहचानती है कि इस जीवन से परे भी कुछ है तथा इस संसार से परे भी कोई है । हम इस ज्ञान को बौद्धिक रूप से झुठला सकते हैं, परन्तु हमारे में तथा हमारे द्वारा परमेश्वर की उपस्थिति फिर भी है । इस सबके उपरान्त, बाइबल हमें सचेत करती है कि कुछ लोग फिर भी परमेश्वर के अस्तित्व को झुठलायेंगें, "मूर्ख ने अपने मन में कहा है, कि कोई परमेश्वर है ही नहीं ।" (भजन संहिता १४:१) । क्योंकि अब तक के इतिहास में ९८ प्रतिशत से अधिक लोग, सारी संस्कृतियों में, सारी सभ्यताओं में, सारे महाद्वीपों पर किसी प्रकार के परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते है, तो इस विश्वास का कारण कुछ (या कोई) तो होगा ।

परमेश्वर के अस्तित्व के लिए बाइबल विवादों के साथ में, तार्किक विवाद भी है । पहला तत्वमीमांसात्मक विवाद है । तत्वविज्ञानी विवाद की सर्वाधिक चर्चित स्वरूप आधारभूत इस विषय का उपयोग करता है कि परमेश्वर को परमेश्वर के अस्तित्व का प्रमाण देना चाहिये । वो परमेश्वर की इस परिभाषा से आरंभ होता है जैसे, "इतना बड़ा कि उससे बड़े की कल्पना नहीं की जा सकती ।" फिर यह विवाद उठता है कि अस्तित्व में होना, अस्तित्व में ना होने से अधिक बड़ा है, और इसलिये सबसे बड़े कल्पनीय हस्ति को अस्तित्व में होना चाहिये । अगर परमेश्वर का आस्तित्व नहीं है तो परमेश्वर सबसे बड़ा कल्पनिय हस्ती नहीं हो सकता-परन्तु यह बात परमेश्वर की परिभाषा का खंडन करेगी । दूसरा उद्देश्यवादी विवाद है । उद्देश्यवादी विवाद यह है कि क्योंकि ब्रह्माण्ड ऐसा आश्चर्यजनक डिज़ायन (खाका) प्रदर्शित करता है, तो वहाँ पर कोई ईश्वरीय डिज़ायनर (खाकाकार) होना चाहिये । उदाहरण के रूप में, अगर धरती सूर्य से कुछ सौ मील पास या दूर होती, तो वह जीवन की उस प्रकार से सहायता करने योग्य नहीं होती जितनी वो आज है ।

अगर हमारे वातावरण में मौजूद तत्व केवल कुछ प्रतिशत अंश भिन्न हो, तो पृथ्वी पर सारे जीवित प्राणी मर जायेंगे । एक एकल प्रोटीन के अणु के संयोग से बनने की संभावनाएं १०२४३ में 1 होती है (जिसका मतलब है कि १० के ऊपर २४३० है) । एक एकल कोशाणु लाखों अणुओं से बना होता है । तीसरा तार्किक विवाद जो परमेश्वर के अस्तित्व के विषय में है वो है ब्रहमाण्ड संबंधित विवाद । हर परिणाम के पीछे कोई कारण होना चाहिये । यह ब्रहमाण्ड तथा इसमें की हर वस्तु एक परिणाम है । कोई ऐसी वस्तु भी होनी चाहिए जिसके कारण हर वस्तु अस्तित्व में आई । अंततः कोई वस्तु "बिना कारण" (निर्उद्देश्य) भी होनी चाहिए जो कि अन्य सब वस्तुओं के अस्तित्व में आने का कारण बने । वो "बिना-कारण" वस्तु ही परमेश्वर है । चौथा विवाद नैतिक विवाद के रूप में जाना जाता है । इतिहास में अब तक हर एक संस्कृति के पास किसी ना किसी प्रकार का नियम होता आया है । हर एक के पास सही और गलत का बोध है । हत्या, झूठ, चोरी तथा अनैतिकता को लगभग सदा से अस्वीकृत किया जाता है । इस सही और गलत का बोध अगर पवित्र परमेश्वर के पास से नहीं तो फिर कहाँ से आया?

इस सबके बावजूद भी, बाइबल हमें बताती है कि लोग परमेश्वर के स्पष्ट तथा अकाट्य ज्ञान को अस्वीकार करेंगे तथा इसके अतिरिक्त एक झूठ पर विश्वास करेंगे । रोमियो १:२५ घोषणा करता है, "उन्होनें परमेश्वर की सच्चाई को बदलकर झूठ बना डाला, और सृष्टि की उपासना और सेवा की, न कि उस सृजनहार की जो सदा धन्य है । अस्तु ।" बाइबल यह भी दावा करती है कि परमेश्वर पर विश्वास ना करने के लिए लोग निरूत्तर है, "क्योंकि उसके अनदेखे गुण, अर्थात उस की सनातन सामर्थ, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं, यहाँ तक कि वे निरूत्तर है" (रोमियो १:२०)

लोग परमेश्वर पर विश्वास ना करने का दावा इसलिए करते हैं कि उसमें "वैज्ञानिकता" नहीं है या "क्योंकि कोई प्रमाण नहीं है" । सच्चा कारण यह है कि एक बार लोग मान लेते हैं कि परमेश्वर है, उन्हें यह भी मानना पड़ेगा कि वो परमेश्वर के प्रति ज़िम्मेदार है तथा उन्हें परमेश्वर से उद्धार की आवश्यकता है (रोमियों ३:१३; ६:२३) । अगर परमेश्वर का अस्तित्व है, तो फिर हम उसके प्रति अपने कार्यों के प्रति ज़िम्मेदार हैं । अगर परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है, तो फिर हम जो चाहे वो कर सकते हैं बिना यह चिंता किये कि परमेश्वर हमारा न्याय करेगा । मैं विश्वास करता हूँ कि यही वजह है कि हमारे समाज में कई लोगों से विकास इतनी ज़ोर से क्यों चिपका हुआ है-लोगों को सृष्टिकर्ता परमेश्वर में विश्वास करने का एक विकल्प देने के लिए । परमेश्वर है और सब जानते हैं कि परमेश्वर है । पूर्णतया सत्य यह है कि कुछ लोग उसके अस्तित्व को असिद्ध करने का इतनी उद्दंडतापूर्वक प्रयास करते हैं कि एक विवाद जन्म ले लेता है ।

मुझे परमेश्वर के अस्तित्व के विषय एक अंतिम विवाद की अनुमति दें । मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर है? मैं जानता हूँ कि परमेश्वर है क्योंकि प्रतिदिन मैं उससे बाते करता हूँ । उसका मुझसे बात करना मुझे सुनाई नहीं देता; परन्तु मुझे उसकी उपस्थिति की अनुभूति होती है, मैं उसकी अगुवाई महसूस करता हँ, मैं उसके प्रेम को जानता हूँ, मैं उसके अनुग्रह का अभिलाषी हूँ । मेरे जीवन में ऐसी द्घटनायें द्घटित हो चुकी हैं जिनका की परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई व्याख्या है ही नहीं । परमेश्वर ने मुझे इतने चमत्कारिक रूप से बचाया है तथा मेरा जीवन परिवर्तित किया है कि मैं उसके अस्तित्व को पहचानने तथा उसका गुणगान करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता । इनमें से कोई भी विवाद अपने आप में किसी को भी प्रेरित नहीं कर सकता जो इस बात को पहचानने से इन्कार करते हैं जो कि इतनी स्पष्ट है । अंत में, परमेश्वर का अस्तित्व विश्वास के द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिये (इब्रानियों ११:६) । परमेश्वर पर विश्वास अंधेरे में अंधी छलांग नहीं है, यह एक उजले कमरे में सुरक्षित कदम है जहाँ ९० प्रतिशत लोग पहले से ही खड़े हैं ।



क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?    
 

परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?


प्रश्न: परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?

उत्तर:
जैसे कि हम इस प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास करेंगे शुभ समाचार यह है कि परमेश्वर के विषय में बहुत कुछ है जिसे खोजा जा सकता है । बाइबल, ईश्वर का वचन, हमें बताता है ईश्वर का कैसा स्वरूप है, और ये भी वो कैसा नहीं है धर्मशास्त्र का संदर्भ पूर्णतया आवश्यक होता है, क्योंकि बाइबल के प्रमाणों के बिना, ईश्वर को समझने के लिए यह एक मात्र एक विचार होगा, जो कि स्वयं में त्रुटिपूर्ण होता है, विशेषतया ईश्वर को समझने में। (अय्यूब ४२:७) । यह कहना महत्वपूर्ण है कि हम यह समझने का प्रयास करें कि परमेश्वर कैसा है, एक बहुत बड़ी न्यूनोक्ति होगी ! इस बात की असफलता हमें दूसरे ईश्वर बनाने, उनका अनुसरण करने तथा उनकी उपासना करने का कारण बनेगी जो कि परमेश्वर की इच्छा के विपरीत है (निर्गमन २०:३-५) ।

परमेश्वर ने अपने बारे में प्रकट करने के लिए जो चुना है केवल उसे ही जाना जा सकता है । परमेश्वर की विशेषताओं या गुणों में से एक है "ज्योति" जिसका अर्थ है कि अपने बारे में जानकारी वो स्वयं प्रकट करता है (यशायाह ६०:१९; याकूब १:१७) । इस सत्य का, कि परमेश्वर ने स्वयं अपने बारे में जानकारी दी है, उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, ऐसा ना हो कि हम में से कोई उसके विश्राम में प्रवेश करने से छूटा रह जाए (इब्रानियों ४:१) । सृष्टि, बाइबल, तथा देहदारी शब्द (यीशु मसीह) हमारे यह जानने में सहायता करेंगे कि परमेश्वर कैसा है ।

इस बात को समझने से शुरूआत करते हैं कि परमेश्वर हमारा रचियता है तथा हम उसकी सृष्टि का एक हिस्सा है (उत्पत्ति १:१; भजन संहिता २४:१) परमेश्वर ने कहा कि मनुष्य उसके स्वरूप में बनाया गया है । मनुष्य को औरों की सृष्टि से ऊपर रखा तथा उसके उपर अधिकार दिया (उत्पत्ति १:२६-२८) । सृष्टि "पतन" के कारण शापित है परन्तु उसके कार्यों की झलक फिर भी प्रस्तुत करती है (उत्पत्ति ३:१७-१८; रोमियो १:१९-२०) । सृष्टि की विशालता, जटिलता, सुन्दरता तथा व्यवस्था पर विचार करते हुए उसकी विस्मयकारिता का बोध हो सकता है । परमेश्वर के कुछ नामों को पढ़ना हमारी इस खोज में सहायक हो सकता है कि परमेश्वर कैसा है । यह निम्नलिखित हैं :

एलोहीम -एकमात्र शक्तिशाली, ईश्वरीय (उत्पत्ति १:१)
अदोनाईं -प्रभु, मालिक से सेवक के संबंधों की ओर संकेत करते हुए (निर्गमन ४:१०; १३)
एल्एल्योन -परम प्रधान, सबसे शक्तिशाली (उत्पत्ति १४:२०)
एलरोई -सर्वदर्शी ईश्वर (उत्पत्ति १६:१३)
एलशादाई -सर्वशक्तिमान ईश्वर (उत्पत्ति १७:१)
एलओलाम -सनातन परमेश्वर (यशायाह ४०:२८)
यहोवा -प्रभु "मैं हूँ," जिसका अर्थ है अनन्त स्वयं उत्पन्न होने वाला (निर्गमन ३:१३,१४)

अब हम परमेश्वर की और विशेषताओं का निरीक्षण करना जारी रखेंगे ; परमेश्वर सनातन है, जिसका अर्थ है कि उसका कोई आरंभ नहीं था तथा उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा । वह अमर है, वह अंतहीन है (व्यवस्थाविवरण ३३:२७; भजन संहिता ९०:२; १तिमुथियुस १:१७) । परमेश्वर अपरिवर्तनीय है, अर्थात वह कभी बदलता नहीं; इसका मतलब है कि परमेश्वर पूर्ण रूप से विश्वसनीय तथा भरोसेमंद है (मलाकी ३:६; गिनती २३:१९; भजन संहिता १०२:२६-२७) । परमेश्वर अतुलनात्मक है, अर्थात कार्यों तथा अस्तित्व में उस जैसा और कोई नहीं; वह अतुल्य तथा सिद्ध है (२शमूएल ७:२२; भजन संहिता ८६:८; यशायाह ४०:२५; मत्ती ५:४८) । परमेश्वर अबोधगम्य है, अर्थात अगम्य, अथाह है (यशायाह ४०:२८; भजन संहिता १४५:३; रोमियो ११:३३, ३४)

परमेश्वर न्यायी है, अर्थात वो व्यक्तियों के विषय में कोई पक्षपात नहीं करता (व्यवस्थाविवरण ३२:४; भजन संहिता १८:३०) । परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, अर्थात उसके पास सारी शक्तियॉ है, वो कुछ भी कर सकता है जिससे उसे प्रसन्नता होती है, परन्तु उसके कार्य उसके चरित्र के अनुरूप होते हैं (प्रकाशित वाक्य १९:६; यिर्मयाह ३७:१७, २७) । परमेश्वर सर्वव्यापी है, अर्थात वो हर समय, हर जगह उपस्थित रहता है; इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर सब कुछ है (भजन संहिता १३९:७-१३; यिर्मयाह २३:२३) । परमेश्वर सर्वज्ञ है, अर्थात उसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान रहता है, उसे सब ज्ञान रहता है, यहाँ तक की हम किसी भी देय समय पर क्या सोच रहें हैं, उसे सब ज्ञान है तथा उसका न्याय निष्पक्ष होगा (भजन संहिता १३९:१-५; नीतिवचन ५:२१) ।

परमेश्वर एक है, इसका केवल यह ही मतलब नहीं कि कोई दूसरा नहीं है, परन्तु यह भी है कि एक वो ही है जो हमारे मनों (हृदयों) की गहरी से गहरी इच्छाओं तथा लालसाओं को पूरा करता है, तथा केवल वो ही हमारी आराधना तथा श्रद्धा का अधिकारी है (व्यवस्थाविवरण ६:४) । परमेश्वर धर्मी है, अर्थात परमेश्वर गलत कार्यों को अनदेखा कभी नहीं कर सकता ; उसकी धार्मिकता तथा न्याय के कारण ही हमारे पापों की क्षमा के लिए, यीशु को परमेश्वर के न्याय का अनुभव करना पड़ा जब हमारे पाप उस पर रख दिए गए थे (निर्गमन ९:२७; मत्ती २७:४५-४६; रोमियो ३:२१-२६)

परमेश्वर संप्रभु है, अर्थात वो सर्वोच्च है, राजाओं का राजा, उसकी सारी सृष्टि मिलकर भी, चाहे जानबूझकर या अनजाने में, उसके उद्देश्यों को विफल नहीं कर सकती (भजन संहिता ९३:१; ९५:३; यिर्मयाह २३:२०) । परमेश्वर आत्मा है, अर्थात वह अदृश्य है (यूहन्ना १:१८;४:२४) । परमेश्वर त्रिएकत्व है, अर्थात तीन व्यक्तियों का संग्रह, साररूप में समान, शक्ति तथा महिमा में बराबर । ध्यान दें कि धर्मशास्त्र का पहला अनुच्छेद प्रमाण देता है कि 'नाम' एकवचन है, फिर भी वो तीन विभिन्न चरित्रों का उल्लेख करता है- "पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा" (मत्ती २८:१९; मरकुस १:९-११) परमेश्वर सत्य है, अर्थात वह उस अनुरूपता में हैं, जो कुछ वो है, वह सच्चरित्र रहेगा तथा झूठ नहीं बोल सकता (भजन संहिता ११७:२; १शमूएल १५:२९)

परमेश्वर पवित्र है, अर्थात वो हर प्रकार के नैतिक अपवित्रीकरण से अलग है तथा उसका विरोधी है । परमेश्वर सारी बुराईयों को देखता है और वो उस क्रोधित करती है; धर्मशास्त्र में पवित्रता के साथ आग का अकसर उल्लेख किया गया है । परमेश्वर के बारे में आग निगलने का उल्लेख है (यशायायह ६:३; हबवकूक १:१३; निर्गमन ३:२; ४:५; इब्रानियों १२:२९) । परमेश्वर अनुग्रहकारी है-इसमें उसकी अच्छाई, भलाई, दयालुता तथा प्रेम शामिल है-वह शब्द जिनमें उसकी अच्छाई के अर्थ की तात्पर्यता दिखाई देती है । अगर परमेश्वर का अनुग्रह ना होता तो ऐसा प्रतीत होता कि उसकी अन्य विशेषतायें हमें उससे अलग कर देंगी। धन्यवाद स्वरूप ऐसा नहीं है, क्योंकि वो हममें से हर एक को व्यक्तिगत रूप से जानने की इच्छा रखता है (निर्गमन ३४:६; भजन संहिता ३१:१९; १पतरस १:३; यूहन्ना ३:१६; यूहन्ना १७:३) । चुकिं ईश्वर एक असीम ब्रह्म है, कोई भी मनुष्य द्वारा इसकी खोज ईश्वर की तरह ही निराकार होगी। ईश्वर के वचन के द्वारा ही हम ईश्वर के स्वरूप को पहचान सकते हैं। शुभेच्छा यही है कि हम उनकी खोज में अनवरत बने रहें। (जिर्मयाह २९:१३)"



परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?    
 

क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?


प्रश्न: क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?

उत्तर:
हम जानते हैं कि परमेश्वर वास्तविक है क्योंकि उसने अपने आपको हम पर तीन तरीकों से प्रकट किया है : सृष्टि में, अपने वचन में, तथा अपने पुत्र, यीशु मसीह में ।

परमेश्वर के अस्तित्व का सर्वाधिक मौलिक प्रमाण साधारणतयाः वो है जो उसने बनाया है । "क्योंकि उसके अनदेखे गुण, अर्थात उसकी सनातन सामथ, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं, यहाँ तक कि वे (अविश्वासी) निरूत्तर है" (रोमियों १:२०)। "आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है/और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है" (भजन संहिता १९:१)

अगर मुझे मैदान के बीच में एक घड़ी पड़ी हुई मिल जाये, तो मैं यह नहीं मान लूँगा कि वो सहसा ही प्रकट हो गई, या वो हमेशा से वहॉ थी । घड़ी के स्वरूप पर आधारित, आप मान लें कि इस एक डिजाइनर था। लेकिन इससे कई अधिक डिजाइन तथा कार्यशुद्धता हमारे आसपास की दुनिया में है। हमारे समय का माप कलाई पर बंधे घड़ी पर आधारित नहीं है, बल्कि ईश्वर के हाथों में है, पृथ्वी का नियमित परिभ्रमण(सीसियम का रेडियोधर्मी गुण – 133 अणु) । ब्रहमाण्ड महान खाका (डिज़ाइन) । प्रदर्शित करता है, तथा यह बात महान खाकाकार (डिज़ाईनर) को सिद्ध करती है।

अगर मुझे कोई सांकेतिक भाषा का संदेश मिलता है, तो मैं एक कूट विशेषज्ञ के पास जाऊँगा कि वो उन संकेतों को खोले । मैं यह मानूँगा कि किसी बुद्धिमानी व्यक्ति ने संदेश भेजा है; वो जिसने उस संकेत की रचना किया है । डी एन ए 'संकेत' (कोड) कितना पेचीदा है हम अपने शरीर के हर कोशाणु में धारण किये रहते हैं? क्या डी एन ए के पेचीदेपन तथा उद्देश्य संकेत (कोड) के बुद्धिमान लेखक को सिद्ध नहीं करते?

परमेश्वर ने ना केवल एक जटिल तथा उत्तम सामंजस्य का भौतिक संसार बनाया है, उसने मनुष्यों के हृदय में अनन्त-काल का ज्ञान भी उत्पन्न किया है (सभोपदेशक ३:११) । मानव-जाति में एक जन्माजात बोध है कि जीवन में उससे भी अधिक है जो आँख द्वारा देखा जाता है, कि इन सांसारिक नियमो से ऊँचा भी कोई अस्तित्व है । हमारा अनन्तकाल का ज्ञान अपने आपको कम से कम दो तरह से प्रकट करता है : नियम बनाना तथा उपासना । प्रत्येक सभ्यता ने पूरे इतिहास के दौरान कुछ नैतिक नियम कानून संरक्षित किया है, जो कि आश्चर्यजनक रूप से संस्कृति दर संस्कृति समान रहा है। उदाहरण के लिए, प्रेम का मानक सर्वत्र सम्मानित है, जबकि झूठ की क्रिया सर्वत्र दोषी पाई जाती है । सही तथा गलत कि यह सामूहिक नैतिकता-यह सार्वभौमिक समझ एक सर्वोच्च नैतिकता के अस्तित्व की ओर संकेत करता है जिसने हमें ऐसा अंतःकरण दिया ।

इसी तरह से, सारे संसार के लोगों नें, चाहे जो भी संस्कृति हो, उपासना की एक पद्धति विकसित की है । उपासना का उद्देश्य अलग हो सकता है, परन्तु एक "महान शक्ति" का अहसास मानव होने का एक अकाट्य भाग है। उपासना की हमारी प्रवृत्ति इस सत्य से मेल खाती है कि परमेश्वर ने हमें "अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया" (उत्पत्ति १:२७) । परमेश्वर ने हम पर अपने आप को अपने वचन के द्वारा भी प्रकट करा है । धर्मशास्त्र में आरंभ से अंत तक, परमेश्वर के अस्तित्व से एक स्वयं-प्रमाणित सत्य के रूप में व्यवहार किया गया है (उत्पत्ति १:१; निर्गमन ३:१४) । जब बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपनी आत्मकथा लिखी, उसने अपने स्वयं के अस्तित्व को प्रमाणित करने के प्रयास में समय बर्बाद नहीं किया । उसी प्रकार से, परमेश्वर अपनी पुस्तक में उसका अस्तित्व प्रमाणित करने में अधिक समय व्यतीत नहीं करता । बाइबल का जीवन-परिवर्तित करने का स्वभाव, उसकी निष्ठा, तथा वो चमत्कार जो उसके लेखन के साथ-साथ घटे एक नज़दीकी दृष्टि के अधिकार के लिए पर्यात होने चाहिये ।

तीसरे तरीके से जिसमें परमेश्वर ने स्वयं को प्रकट किया वो है, अपने पुत्र यीशु मसीह के द्वारा (यूहन्ना १४:६-११) । "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था और वचन परमेश्वर था ... और वचन देहधारी हुआ, और हमारे बीच में डेरा किया" (यूहन्ना १:१; १४) । यीशु मसीह में, "ईश्वरत्व की सारी परिपूर्णता संदेह वास करती है" (कुलुस्सियों २:९) ।

यीशु के विस्मयकारी जीवन में, उसने संपूर्ण पुराने नियम के कानून को पूर्णता से माना तथा मसीह के बारे में की गई भविष्यवाणियों को पूरा किया (मत्ती ५:१७) । अपने संदेश की प्रमाणिकता सिद्ध करने तथा अपने प्रभु की गवाही के लिए उसने दया के अनगिनत कार्य तथा सार्वजनिक चमत्कार किये (यूहन्ना २१:२४-२५) । फिर, अपने सलीब पर चढ़ाये जाने के तीन दिन बाद, वो मुर्दों में से जी उठा, एक वास्तविकता जिसकी अभिपुष्टि सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों ने की; (१कुरिन्थियों १५:६) । ऐतिहासिक अभिलेख "प्रमाण" से भरा पड़ा है कि यीशु कौन था । जैसा कि प्रेरित पौलुस ने कहा था, "यह घटना तो कोने में नहीं हुई" (पे्ररितों के काम २६:२६)

हमें अनुभूति है कि संशयवादी हमेशा रहेंगे जिनके पास परमेश्वर के विषय में अनेक स्वयं के विचार होंगे तथा गवाही को उसी के अनुसार पढ़ेगें । तथा कुछ ऐसे भी होंगे जिनको किसी भी तरह का प्रमाण संतुष्ट नहीं कर सकता (भजन संहिता १४:१) । यह केवल विश्वास के द्वारा आता है (इब्रानियों ११:६) ।



क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?    
 

बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?


प्रश्न: बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?

उत्तर:
त्रिस्वरूप के बारे में मसीही धारणा के विषय में सबसे कठिन बात यह है कि उसे संतोषजनक रूप से समझाने का कोई तरीका नहीं है । त्रिस्वरूप एक ऐसी धारणा है जिसे किसी भी मनुष्य को पूरी तरह से समझना असंभव है । ईश्वर हम से अपरिमित रूप से बहुत महान है, इसलिए हमें स्वयं को उसको पूर्ण रूप से समझने की अपेक्षा के योग्य नहीं समझना चाहिये । बाइबल बताती है कि पिता ईश्वर है, यीशु ईश्वर है, तथा पवित्र आत्मा ईश्वर है । बाइबल यह भी बताती है कि ईश्वर केवल एक ही है । यद्यपि हम त्रिस्वरूप के तीन भिन्न व्यक्तियों के आपस में संबंध की कुछ वास्तविकताओं को समझ सकते हैं, परन्तु अन्ततः वो मानव मस्तिष्क में आसानी से समझ में आने के योग्य नहीं है । हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं है कि वो सत्य नहीं है या बाइबल की शिक्षाओं पर आधारित नहीं है ।

इस विषय का अध्ययन करते हुए यह बात ध्यान रखें कि "त्रिस्वरूप" शब्द पवित्रशास्त्र में कहीं उपयोग नहीं किया गया है । यह शब्द त्रिस्वरूप ईश्वर का वर्णन करने के प्रयास में उपयोग किया गया है, इस वास्तविकता के तीन साथ-साथ रहने वाले, सनातन व्यक्तित्व है जिन्हें ईश्वर कहा जाता है । यह समझ लें कि इसका अर्थ तीन ईश्वर नहीं है । त्रिस्वरूप एक ईश्वर है जो कि तीन व्यक्तिवों में विद्यमान है। "त्रिस्वरूप" शब्द के प्रयोग करने में कुछ गलत नहीं है जबकि यह बाइबल में कहीं नहीं पाया जाता है । "त्रिस्वरूप" शब्द" कहना "तीन साथ-साथ रहने वाले, सनातन व्यक्तित्वों का एक ईश्वर" को कहने से छोटा है । अगर यह बात आपको कोई समस्या प्रस्तुत करता है, तो इस प्रकार समझें : दादा शब्द भी बाइबल में उपयोग नहीं किया गया है, जबकि हम जानते हैं कि बाइबल में दादा भी थे । अब्राहम याकूब का दादा था । इसलिए "त्रिस्वरूप" शब्द को पकड़े ना रहें । जो बात वास्तविक महत्व की होनी चाहिये वो यह है जिस धारणा का "त्रिस्वरूप" शब्द के द्वारा प्रतिनिधितत्व किया गया है उसका पवित्रशास्त्र में आस्तित्व है । अलग से प्रस्तुतिकरण के द्वारा, त्रिस्वरूप के विषय में परिचर्चा के लिए बाइबल में उदाहरण प्रस्तुत हैं :

१) यहोवा एक ही है : (व्यवस्था विवरण ६:४; १कुरिन्थियों ८:४; गलतियों ३:२०; १तिमुथियुस २:५) ।

२) त्रिस्वरूप तीन व्यक्तित्वों से बना हुआ है : (उत्पत्ति १:१; १:२६; ३:२२; ११:७; यशायाह ६:८; ४८:१६; १६:१; मत्ती ३:१६-१७; २८:१९; २कुरिन्थियों १३:१४) । पुराने नियम के अनुच्छेदों के लिये, इब्रानी (हिब्रु) भाषा का ज्ञान उपयोगी होगा । (उत्पत्ति १:१) में बहुवचन संज्ञा "एलोहीम" का प्रयोग किया गया है । (उत्पत्ति १:२६; ३:२२, ११:७) तथा (यशायाह६:८) में, बहुवचन सर्वनाम "हम" का प्रयोग किया गया है । इस बात का कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि "एलोहिम" या "हम" का अर्थ एक से अधिक है । अंग्रेजी में दो रूप होते हैं, एकवचन तथा बहुवचन । इब्रानी भाषा में, तीन रूप होते हैं : एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन । द्विवचन केवल दो के लिये है । इब्रानी भाषा में द्विवचन उन वस्तुओं के लिए प्रयोग किया जाता है जो जोड़े में होती है जैसे ऑखें, कान तथा हाथ । शब्द "एलोहिम" तथा सर्वनाम "हम" बहुवाचक रूप हैं- निश्चित रूप से दो से अधिक तथा तीन या चार का उल्लेख करते हैं (पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा) । यशायाह ४८:१६ तथा ६१:१ में पुत्र, पिता तथा पवित्र आत्मा से संबंधित होकर बात करता है । यह जानने के लिये यशायाह ६१:१ तथा लूका ४:१४-१९ के मध्य तुलना करें कि वो पुत्र ही बोल रहा है । मत्ती ३:१६-१७ यीशु के बपतिस्में की घटना का वर्णन करता है । इसमें यह बात देखी जाती है कि ईश्वर रूपी पवित्र आत्मा का ईश्वर रूपी पुत्र के ऊपर आना जबकि ईश्वर रूपी पिता, पुत्र में अपनी प्रसन्नता का ऐलान करता है ।

3) त्रिस्वरूप के सदस्यों का एक दूसरे से अंतर कई अनुच्छेदों में है : पुराने नियम में, "यहोवा" का "प्रभु" से अंतर है (उत्पत्ति १९:२४; होशे १:४) । "यहोवा" के पास एक "पुत्र" है (भजन संहिता २:७; १२; नीतिवचन ३०:२-४) । आत्मा का "यहोवा" से (गिनती २७:१८) तथा "ईश्वर" से अंतर है (भजन संहिता ५१:१०-१२) । ईश्वर रूपी पुत्र तथा ईश्वर रूपी पिता में अंतर है (भजन संहिता ४५:६-७; इब्रानियों १:८-९) । नए नियम में, यूहन्ना १४:१६-१७ में यीशु पिता से एक सहायक भेजने के विषय में बाते करता है, पवित्र आत्मा के भेजने के लिये । यह बात बताती है कि यीशु अपने आप को पिता या पवित्र आत्मा नहीं समझता था । सुसमाचार के अन्य भागों में भी उन क्षणों का विचार करें जब यीशु पिता से बातें करता है । क्या वह अपने आप से बातें कर रहा था? नहीं । उसने त्रिस्वरूप के अन्य अस्तित्व से बात की-पिता से ।

4) त्रिस्वरूप का हर एक सदस्य ईश्वर है : पिता ईश्वर है : यूहन्ना ६:२७, रोमियो १:७; १पतरस १:२ । पुत्र ईश्वर है : यूहन्ना १:१, १४; रोमियो ९:५; कुलुस्सियों २:९; इब्रानियों १:८; १यूहन्ना ५:२० । पवित्र आत्मा ईश्वर है : प्रेरितों के काम ५:३-४; १कुरिन्थियों ३:१६ (जो वास करता है वह पवित्र आत्मा है-रोमियो ८:९; यूहन्ना १४:१६-१७; प्रेरितों के काम २:१-४) ।

5) त्रिस्वरूप के अंतर्गत अधीनस्थता : पवित्रशास्त्र दिखाता है कि पवित्र आत्मा पिता तथा पुत्र के अधीन है, तथा पुत्र पिता के अधीन है । यह एक अन्दरूनी संबंध है, तथा त्रिस्वरूप के व्यक्ति की प्रभुता को नहीं नकारता । यह एक साधारणतया ऐसा क्षेत्र हैं जहॉ हमारे सीमित मस्तिष्क ईश्वर की विशालता को नहीं समझ सकते । पुत्र के संबंध में देखें : लूका २२:४२; यूहन्ना ५:३६; २०:२१; १यूहन्ना ४:१४ । पवित्र आत्मा के संबंध में देखें यूहन्ना १४:१६; १४:२६; १५:२६; १६:७ तथा विशेष रूप से यूहन्ना १६:१३-१४ ।

6) त्रिस्वरूप के वैयक्तिक सदस्यों के कार्य : पिता इन वस्तुओं का मूलभूत स्त्रोत या कारण है । (१) ब्रह्याण्ड (१कुनिन्थियों ८:६; प्रकाशित वाक्य ४:११); (२) ईश्वरीय प्रकाश (प्रकाशित वाक्य १:१); (३) उद्धार (यूहन्ना ३:१६-१७); तथा (४) यीशु के मानवीय कार्य (यूहन्ना ५:१७; १४:१०) । पिता इन सारी वस्तुओं का सूत्रपात करता है । पुत्र एक माध्यम है जिसके द्वारा पिता यह सब करता है :

(१) ब्रह्याण्ड की सृष्टि तथा रख रखाव (१कुरिन्थियों ८:६; यूहन्ना १:३; कुलुस्सियों १:१६:१७);

(२) ईश्वरीय प्रकाश (यूहन्ना १:१; मत्ती ११:२७; यूहन्ना १६:१२-१५; प्रकाशित वाक्य १:१); तथा

(३) उद्धार (२कुरिन्थियों ५:१९; मत्ती १:२१; यूहन्ना ४:४२) । यह सारी वस्तुऐं पिता पुत्र के द्वारा करता है, जो कि उसके माध्यम के रूप में कार्य करता है :पवित्र आत्मा वो साधन है जिसके द्वारा पिता यह सब कार्य करता है ।

(१) ब्रह्याण्ड की सृष्टि तथा रख-रखाव (उत्पत्ति १:२; अय्यूब २६:१३; भजन संहिता १०४:३०); (२) ईश्वरीय प्रकाश (यूहन्ना १६:१२-१५; इफिसियों ३:५; २पतरस १:२१); (३) उद्धार (यूहन्ना ३:६; तीतुस ३:५; १पतरस १:२); तथा (४) यीशु के कार्य (यशायाह ६१:१; प्रेरितों के काम १०:३८)। इस तरह पिता यह सब कार्य पवित्र आत्मा की शक्ति के द्वारा करता है।

त्रिस्वरूप के विषय में कोई भी लोकप्रिय उदाहरण उसका पूर्ण शुद्ध वर्णन नहीं है । अण्डा (या सेब) इस बात पर खरा नहीं उतरता कि उसका खोल, सफेदी तथा जर्दी अण्डे के भाग हैं, स्वयं अण्डा नहीं है । पिता, पुत्र तथा पवित्र आत्मा ईश्वर के भाग नहीं हैं, उनमें से हर एक ईश्वर है । पानी का उदाहरण कुछ सीमा तक बेहतर है परन्तु फिर भी खरा नहीं उतरता । तरल, भाप तथा बर्फ पानी के रूप हैं । पिता, पुत्र तथा पवित्र आत्मा ईश्वर के रूप नहीं हैं, उनमें से हर एक ईश्वर है । इसलिये, यद्यपि यह उदाहरण हमें त्रिस्वरूप का चित्रण करते हैं, परन्तु चित्रण पूरी तरह से सही नहीं है । एक अपरिमित ईश्वर को सीमित उदाहरण के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । त्रिस्वरूप के ऊपर केन्द्रित होने के बजाए स्वयं से अधिक ईश्वर की महानता तथा अपरिमित उच्च व्यक्तित्व के ऊपर केन्द्रित होने का प्रयास करें । "आहा ! ईश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है ! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं ! प्रभु की बुद्धि की किसने जाना? या उसका मंत्री कौन हुआ?



बाइबल त्रिस्वरूप के विषय में क्या शिक्षा देती है?    
 

परमेश्वर बुरी चीज़ो को अच्छे लोगों के साथ क्यों होने देता है ?


प्रश्न: परमेश्वर बुरी चीज़ो को अच्छे लोगों के साथ क्यों होने देता है ?

उत्तर:
यह सारी आध्यात्मविद्या में सबसे कठिन प्रश्नों में से एक है। परमेश्वर अनन्त, असीम, सर्व-ज्ञानी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है। क्यो मनुष्य (जो अनन्त, असीम, सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान नहीं है) परमेश्वर के तोर-तरीकों को पुर्णत: समझने की अपेक्षा करता है? अय्यूब की पुस्तक इस मुद्दे से निपटती है। परमेश्वर ने शेतान को वह सब कुछ करने की अनुमति दे दी जो वह अय्यूब के साथ करना चाहता था सिवाय कि उसे मार डाले। अय्यूब की प्रतिक्रिया क्या थी? ‘‘चाहे वह मुझे मार डाले, तो भी मैं उस पर आशा रखुंगा’’ (अय्यूब 13:15) प्रभु का नाम धन्य है’’ (अय्यूब 1:21) । अय्यूब समझ नहीं सका क्यो परमेश्वर ने उन बातों को होने दिया जो हुई, परन्तु वह जानता था कि परमेश्वर भला है इसलिए उस पर निरन्तर विश्वास बनाए रखा। अंतत: यही हमारी भी प्रतिक्रिया होनी चाहिए।

बुरी बाते अच्छे लोगों के साथ क्यों होती हैं ? बाईबल का उत्तर यह है कि कोई भी भला नहीं। बाईबल इसे बहुतायत से स्पष्ट करती है कि हम सब पाप से दूषित और ग्रस्त है (सभोपदेशक 7:20; रोमियो 6:23; 1 यूहत्रा 1:8) रोमियो 3:10-18 भले लोगों के अस्तित्व हीन होने के बारे में बिलकुल स्पष्ट है। कोई भी धर्मी नहीं, एक भी नहीं; कोई भी बुद्धिमान नहीं, कोई भी परमेश्वर का खोजी नहीं । सब भटक गए है। सब के सब निकम्मे बन गए हैं, कोई भलाई करने वाला नहीं है, एक भी नहीं। उनका गला खुली कबर है, उनकी वाणी में कपट है, और उनके होठों में साप का विष है। उनके मुँह शाप और कटूता से भरे हैं। उनके पांव हत्या करने के लिए दौड़ते हैं । उनके मार्ग में विनाश और कलेश है। वे शान्ति के ‌‌‌पथ से अपरिचित है। उन्होने परमेश्वर का भय मानना नहीं सीखा है। इस ग्रह का हर एक मनुष्य इसी पल नरक मे डाले जाने के योग्य है। हर एक पल जो हम जीवित बिता रहे है वह केवल परमेश्वर के अनुग्रह और करूणा से है। सबसे भयानक कष्ट भी जो हम इस ग्रह पर अनुभव कर सकते हैं वह करूणामय है उस अनन्त नरक की आग की तुलना में जिसके हम योग्य हैं । बेहतर प्रश्न यह होगा कि परमेश्वर अच्छी बातें को बुरे लोगों के साथ क्यों होने देता है ? रोमियों 5:8 घोषित करता है, ‘‘परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिए मरा’’ । इस संसार के लोगों के बुरे, दुष्ट, पापमय स्वभाव के बावजूद भी परमेश्वर हम से प्यार करते हैं। उसने हम से इतना प्यार किया कि हमारे पापों के दंड़ ‌‌‌को उठाने के लिए मर ‌‌‌भी जाए (रोमियो 6:23)। यदि हम यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं (यूहत्रा 3:16; रोमिया 10:9), हमको क्षमा कर दिया जाएगा और स्वर्ग में अनन्त ‌‌‌निवास-स्थान की प्रतिज्ञा भी ‌‌‌मिली है (रोमियो 8:1) हम नरक के योग्य है। पर हमें स्वर्ग में अनन्त जीवन दिया जाता है यदि हम विश्वास से मसीह के पास आते है।

हां, कभी-कभी बुरी बाते उन लोगों के साथ होती हैं जो उसके योग्य नहीं लगते हैं परन्तु परमेश्वर अपने ही कारणों के कारण से कई बातों को होने देते हैं। चाहे हम उसे समझ सके या नहीं। सर्वप्रथम, वैसे, हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि परमेश्वर भले, धर्मी, प्रेमी और दयावान हैं । अक्सर ऐसी बाते हमारे साथ होती है जिसे हम बस समझ नहीं सकते। परन्तु परमेश्वर की भलाई पर सन्देह करने के बजाए, हमारी प्रतिक्रिया उस पर विश्वास रखने की होनी चाहिए। सम्पूर्ण हृदय से प्रभु पर भरोसा रखना और तू अपनी समझ को सहारा न लेना; उसी का स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिए सीधा मार्ग निकालेगा (नीतिवचन 3:5-6)।



परमेश्वर बुरी चीज़ो को अच्छे लोगों के साथ क्यों होने देता है ?    
 

क्या परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि की ?


प्रश्न: क्या परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि की ?

उत्तर:
सर्वप्रथम ऐसा प्रतीत होता है कि यदि परमेश्वर ने हर वस्तु को बनाया फिर अवश्य बुराई की सृष्टि, परमेश्वर ने ही की होगी । वैसे, बुराई कोई पत्थर या विघुत जैसी नहीं है। आप बुराई को घड़े में नही रख सकते हैं। बुराई का अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं है, यह वास्तव में भलाई की अनुपस्थिति है। उदाहरण के लिए छिद्र ‌‌‌वास्तविक होते हैं पर वह किसी अन्य चीज़ में होते हैं । हम किसी जगह मिट्टी ना होने को छिद्र कहते हैं, पर इसे मिट्टी से अलग नहीं किया जा सकता । इसलिए जब परमेश्वर ने सृष्टि की, यह सच है कि सब जो उसने बनाया, अच्छा था। परमेश्वर की बनाई हुई वस्तुओ में मनुष्य ‌‌‌ही एक एसे थे जिनके पास अच्छा चुनने की स्वतंत्रता थी। यथार्थ में चुनाव हो परमेश्वर को ऐसा होने देने था कि अच्छा चुनने के अलावा भी कुछ और विकल्प हो। इसलिए परमेश्वर ने स्वर्गदूतों और मनुष्यों को भलाई को चुनने और भलाई को नकारने (अर्थात बुराई) की स्वतंत्रता दी। जब दो भली वस्तुओं के बीच में खराब सम्बन्ध होते हैं हम उसे बुरा कहते हैं, परन्तु यह ऐसी ‘‘वस्तु’’ नहीं बन जाती है जिसकी सृष्टि की परमेश्वर को आवश्यकता हो ।

सम्भवत: अतिरिक्त उदाहरण सहायक हो। यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए, ‘‘क्या ठण्डे का अस्तित्व है? संभावित उत्तर ‘‘हाँ’’ में होगा । वैसे, यह गलत है। ठण्डे का अस्तित्व नहीं है। ठण्डा उष्मा की अनुपस्थिति है। ऐसी ही अंधकार का अस्तित्व नहीं है, यह प्रकाश की अनुपस्थिति है। बुराई भलाई की अनुपस्थिति है, बेहतर, कि बुराई परमेश्वर की अनुपस्थिति है। परमेश्वर को बुराई की सृष्टि की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि सिर्फ भलाई की अनुपस्थिति को होने देना था।

परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि नहीं की; पर वह बुराई को होने देते हैं। यदि परमेश्वर ने बुराई की सम्भावना को होने दिया होता, तो दोनों मनुष्य जाति और स्वर्गदूत स्वेच्छा से नहीं ‌‌‌वरन बाध्यता के कारण परमेश्वर की सेवा कर रहे होते । वह रोबोट नहीं चाहते थे जो अपनी प्रोग्रामिंग के कारण बस ‌‌‌वही करते जो वह चाहते की वो करे। परमेश्वर ने बुराई की सम्भावना को इसलिए होने दिया जिस से की यर्थाथ में हमारे पास स्वेच्छा हो और फिर चुने कि यदि हम उसकी सेवा करना चाहते हैं या नहीं ।

सीमित मनुष्य, असीमित परमेश्वर को कभी पुर्णतय: न ही समझ सकते (रोमियो 11:33-34) कभी-कभी हम सोचते हैं हम समझ गये हैं कि परमेश्वर यह क्यों कर रहे हैं अंततः ‌‌‌ज्ञात होने लगता है कि इसका उद्देश्य तो भिन्न था, जिसके विषय में हमने पहले सोचा भी नही था । परमेश्वर प्रतिएक वस्तु को पवित्र एवम अनन्त दृष्टिकोन से देखते हैं । हम पापमय, संसारिक और अल्पकालिक दृष्टिकोन से देखते हैं। परमेश्वर ने यह जानते हुए कि आदम और हवा पाप करेंगे और इसलिए सारी मनुष्यजाति पर हानि, मृत्यु और कष्ट लाएंगे, पृथ्वी पर मनुष्य को क्यों रखा? क्यों नहीं उसने बस हम सब को बनाकर स्वर्ग में रख दिया जहाँ हम दोष रहित और बिना कष्ट के होते ? इन प्रश्नों का उत्तर अनन्तकाल की इस ओर प्रर्याप्त रूप से नही दिया जा सकता । हम केवल यह जान सकते हैं और वह यह है कि परमेश्वर जो भी करते हैं वह पवित्र और सिद्ध होता है और अंतत: इन सबसे उसकी महिमा होगी । हमें ऐसा चुनाव करने का विकल्प दिया कि हम उसकी अराधना करते है या नहीं इसलिए परमेश्वर ने बुराई की सम्भावना को होने दिया। परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि नहीं की पर उसने उसे होने दिया और यदि ‌‌‌ऐसी सम्भावना को होने नहीं देते तो हम उसकी अपनी इच्छा से नही वरन बाध्यता के कारण आरधना करते।



क्या परमेश्वर ने बुराई की सृष्टि की ?    
 

परमेश्वर पुराने नियम में और नये नियम में इतने भिन्न क्यों हैं?


प्रश्न: परमेश्वर पुराने नियम में और नये नियम में इतने भिन्न क्यों हैं?

उत्तर:
इस प्रश्न के केन्द्र में पुराने और नये नियम में पाए जाने वाले परमेश्वर के स्वभाव के विषय में मूलभूत गलतधारणा है । इसी मूल विचार को इस रीति से भी अभिव्यक्त किया जाता है जब लोग कहते हैं, ‘‘पुराना नियम का परमेश्वर तो कोध्र का परमेश्वर है जबकि नये नियम का परमेश्वर प्रेम का परमेश्वर है’’ । परमेश्वर स्वयं को क्रमिक रूप से बाईबल में संपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं एवम् अपने लोगों के साथ सम्बन्ध के द्वारा प्रगट करते हैं यह तथ्य गलतधारणा में योगदान कर सकता है कि पुराने - नियम में परमेश्वर नये नियम की तुलना में कैसे है। परन्तु जब कोई दोनो पुराने और नये नियम पढ़ता है, यह स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर पुराने से नये नियम में भिन्न नहीं है और यह कि परमेश्वर का कोध्र और प्रेम दोनो नियमों में प्रकट किया गया है ।

उदाहरण के तौर पर, शुरू से अन्त तक पुराने नियम में परमेश्वर को ‘‘दयालू और अनुग्रहकारी परमेश्वर है, कोध्र में धीमा, अपार प्रेमी और विश्वास योग्य’’ बताया गया है (निर्गमन 34:6; गिनती 14:18; व्यवस्था विवरण 4:31; नहेम्याह 9:17, भजन -संहिता 86:5, 15; 108:4; 145:8, योएल 2:13)। तदापि नये नियम में परमेश्वर की प्रेमपुर्ण दया और करूणा और भी अधिक पुर्णरूप से प्रदर्शित है कि ‘‘परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए’’ (यहुन्ना 3:16)। शुरू से अन्त तक पुराने नियम में, हम परमेश्वर को इजराएल के साथ जैसे कोई प्रेमी पिता अपने बच्चे के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार करते हुए भी देखते हैं। जब वे जानबुझ कर उसके विरूद्ध पाप करते और बुतपरस्ती करने लगते, परमेश्वर उन्हें दंड देते थे । परन्तु, जब भी वह बुतपरस्ती से मन फिराते तब वह उनका छुटकारा करते थे। इसी प्रकार से ही परमेश्वर नये नियम में मसीही लोगों के साथ व्यवहार करते हैं । उदाहरण के लिए इब्रानियो 12:6 हमें बताता है कि ‘‘क्योंकि प्रभु जिससे प्रेम करता है उसकी ताडना भी करता है; और जिसे पुत्र बना लेता है, उसको कोड़े भी लगाता है’’।

इसी रीति से, समस्त पुराने नियम में हम देखते हैं परमेश्वर का न्याय और कोध्र पाप पर उडेला गया । इसी प्रकार से हम नये नये नियम में अब भी देखते हैं कि परमेश्वर का कोध्र उन लोगों की सब अभक्ति और अधर्म पर स्वर्ग से प्रगट होता है, जो सत्य को अधर्म से दबाए रखते हैं (रोमियो 1:18) । इसलिए यह स्पष्ट है परमेश्वर पुराने नियम में नये नियम से भिन्न नही है। परमेश्वर अपने स्वभाव से अपरिवर्तनीय है। जबकि हम धर्मशास्त्र के किसी विशेष अंशों में उनका कोई एक पहलू उनके दुसरे पहलूओं से अधिक देख सकते हैं, परन्तु परमेश्वर स्वयं नहीं बदलते हैं।

जिस प्रकार से हम बाईबल को पढ़ते और अध्ययन करते जाते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर पुराने और नये नियम में एक से हैं । यद्यपि बाईबल 66 अलग-अलग पुस्तकें हैं, जो दो (या सम्भवत: तीन) महाद्धिपों में, तीन भिन्न भाषाओं में, लगभग 1500 सालों की अवधि में 40 लेखकों से अधिक द्वारा लिखी गई है, तौभी आरम्भ से अंत तक बिना किसी विरोधाभास के एकीकृत हैं। इस में हम देखते कि कैसे एक प्रेमी, करूणामय, और न्यायी परमेश्वर पापमय मनुष्यों से हर एक प्रकार की स्थिती में निपटता है। सच में, बाईबल परमेश्वर का मनुष्य जाति के लिए प्रेमपत्र है। समस्त धर्मशास्त्र में परमेश्वर का अपनी सृष्टि के लिए प्रेम, मुख्यता मानवजाति के लिए, प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता है। समस्त बाईबल में हम परमेश्वर को प्रेमपुर्वक और दया से लोगों को अपने साथ विशेष सम्बन्ध बनाने के लिए बुलाते हुए पाते हैं, इसलिए नहीं कि वे इसके योग्य हैं परन्तु इसलिए की वह स्वयं अनुग्रहकारी और दयालु परमेश्वर है जो कोध्र में धीमा और जिसकी प्रेमपुर्ण करूणा ओर सच्चाई महान है। पर हम एक पवित्र और धर्मी परमेश्वर को भी देखते हैं जो उन सब का न्यायी है जो उसके वचन का पालन नहीं करते और उसकी अराधना करने से इनकार करते हैं, बल्कि अपनी कल्पना से बनाए हुए ईश्वरों की ओर जाते हैं (रोमियो अध्याय 1) ।

परमेश्वर की धर्मीकता और पवित्र चरित्र के कारण - भुतकाल, वर्तमान और भविष्य के सभी पापों का न्याय होना अवश्य है । फिर भी परमेश्वर ने अपने असीम प्रेम के द्वारा पाप का दाम का प्रबन्ध किया तथा फिर से मेल या मिलाप का एक रास्ता बनाया जिससे पापमय मनुष्य उनके कोध्र से बच सकें। यह अद्भूत सच्चाई हम यहुन्ना 4:10 जैसे पदों में देखते है: ‘‘प्रेम इस में नहीं कि हम ने परमेश्वर से प्रेम किया, पर इस में है कि उसने हम से प्रेम किया, और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा’’। पुराने नियम में परमेश्वर ने बलिदान चढाने की व्यवस्था बनाई जिससे पाप के लिए प्रायश्चित किया जा सके। हालाँकि यह बलिदान चढाने की व्यवस्था केवल अस्थाई थी और सिर्फ यीशु मसीह के आगमन की ओर देखती थी जो हमारे स्थान पर सम्पूर्ण पापों के प्रायश्चित के लिए क्रूस पर मरेंगे। उद्धारकर्ता जिसकी‌‌‌ प्रतिज्ञा पुराने नियम में की गयी थी वह नये नियम में पुर्णतया प्रगट किया गया । केवल जिसे पुराने नियम में वचनों में देखा, परमेश्वर के प्रेम की सर्वश्रेष्ठ भावाभिव्यक्ति, नये नियम में अपने पुत्र यीशु मसीह को भेजने के द्वारा अपनी सारी महिमा के साथ प्रगट की गयी। दोनों पुराना और नया नियम हमें उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बनाने के लिए दिए गये हैं (2 तीमुथियुस 3:15) जब हम पुराने और नये नियम का ध्यानपूर्वकता से अध्ययन करते हैं, तो यह प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर बदलते रहने वाली छाया की तरह नहीं बदलते हैं’’ (याकूब 1:17).



परमेश्वर पुराने नियम में और नये नियम में इतने भिन्न क्यों हैं?    
 

इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर प्रेम है ?


प्रश्न: इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर प्रेम है ?

उत्तर:
हम यह देखेंगे कि बाईबल प्रेम का कैसा वर्णन करती है, और फिर हम कुछ बातो को देखेंगे जिसमे परमेश्वर प्रेम का सार है ‘‘प्रेम धीरजवन्त है, और कृपालु है; प्रेम डाह नहीं करता, प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता और फूलता नहीं, वह अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुँझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता । कुकर्म से आनन्दित नहीं होता है, परन्तु सत्य से आनान्दित होता है। वह सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज घरता है। प्रेम कभी टलता नहीं (कुरिन्थियो 13:4-8a) । यह परमेश्वर का प्रेम का वर्णन है, और क्योंकि परमेश्वर प्रेम है (यहुन्ना 4:8), यह वैसा ही है जैसा वह है।

प्रेम (परमेश्वर) जबरदस्ती अपने आपको किसी पर थोपता नहीं है। जो उसके पास आते हैं वे उसके प्रेम की प्रेम के कारण आते हैं। प्रेम (परमेश्वर) सब पर अपनी दया दिखाता है। प्रेम (यीशु) सब के साथ बिना पक्षपात के भलाई करते गये। प्रेम (यीशू) ने जो दूसरों के पास था उसका लालच नहीं किया वरण बिना असंतुष्टता प्रकट करते हुए नम्रता का जीवन निर्वाह किया। प्रेम (यीशु) ने इस बात का अभिमान नहीं किया कि वह शरीर में क्या थे, जबकि वह जो भी कभी उनके सम्पर्क में आया उसे पूर्णतया पराजित कर सकते थे । प्रेम (परमेश्वर) आज्ञाकारीता की माँग नहीं करते हैं । परमेश्वर ने अपने पुत्र से आज्ञाकारीता की माँग नहीं की, वरण यीशु ने स्वेच्छा से अपने स्वर्गीय पिता की आज्ञा का पालन किया। दुनिया को यह सिखना चाहिए कि मैं पिता से प्रेम करता हूँ और यथार्थतः वैसे करता हूँ जैसे मेरे पिता ने मुझे आज्ञा दी (यहुन्ना 14:31) । प्रेम (यीशु) हमेशा दूसरों के लाभ के बारे में देखते थे। परमेश्वर से प्रेम की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति यहुन्ना में 3:16 में हम पर व्यक्त की गई ‘‘परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो काई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए’’ । रोमियो 5:8 भी यही सन्देश को उदोधोषित करता है कि ‘‘परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिए मरा’’।

हम इन पदों में देख सकते हैं कि परमेश्वर की सबसे बड़ी इच्छा यह है कि हम उसके साथ उनके अनन्त घर, स्वर्ग में हो। उसने हमारे पापों की कीमत को चुका कर हमारे लिए संभव मार्ग बनाया। वह हमसे प्रेम कर करते हैं क्योंकि उसने हम को अपनी इच्छा के अनुसार चुना है। प्रेम क्षमा करता है। ‘‘यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पानों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वास योग्य और धर्मी है (यहुन्ना 1:9)।

अतः इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर प्रेम है ? प्रेम परमेश्वर का एक गुण है। प्रेम परमेश्वर के चरित्र तथा उनके व्यक्तित्व का केन्द्रीय पहलू है। परमेश्वर का प्रेम किसी भी अर्थ से उसकी पवित्रता, धर्मीकता, न्याय या उनके क्रोध के प्रतिकूल नहीं है। परमेश्वर के सभी गुण पुर्ण सामंजस्य में है। जो कुछ परमेश्वर करते हैं प्रेमपूर्ण होता है, वैसे जो कुछ वह करते है न्यायपूर्ण और सही होता । परमेश्वर प्रेम के आदर्श उदाहरण है। अद्भुत रूप से परमेश्वर ने जो उसके पुत्र यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं उनको पवित्र आत्मा की सामर्थ के द्वारा जैसे वह प्रेम करते हैं वैसे प्रेम करने की क्षमता प्रदान की है, (यहुन्ना 1:12; यहुन्ना 3:1, 23-24) ।



इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर प्रेम है ?    
 

क्या परमेश्वर आज भी हम से बात करते हैं ?


प्रश्न: क्या परमेश्वर आज भी हम से बात करते हैं ?

उत्तर:
बाइबल में इस बात का लिखित प्रमाण है कि परमेश्वर को लोगों से सुनाई देने वाले (श्रवण योग्य) रूप में बात करते थे (निर्गमन 3:14, यहोशु 1:1; न्यायियो 6:18; 1 शमूएल 3:11; 2 शमूएल 2:1; अय्यूब 40:1; यशायाह 7:3; यिर्मयाह 1:7; प्ररितो के काम 8:26; 9:15- यहाँ पर थोड़े इकत्रित नमूने दिए गये हैं)। ऐसा कोई बाइबल का कारण नहीं है कि क्यों परमेश्वर आज किसी मनुष्य से सुनाई देने वाले रूप में बात नहीं कर सकते या करेंगे। बाइबल में इस बात के कई सौ लिखित प्रमाण पाए जाते हैं कि परमेश्वर लोगों से सुनाई देने वाले (श्रवण योग्य) रूप में बात करते थे, हमें स्मरन रखना चाहिए यह मनुष्य के इतिहास के 4000 सालों से ज्यादा समय में धटित हुई है । परमेश्वर का यूँ बाते करना कोई नियमित रीत नही थी वरन अनियिमित व असामान्य था। निसंदेह रूप से परमेश्वर का इस प्रकार से बातें करना बाइबल मे पाए जाने वाले लिखित प्रमाणों से यह हमेशा स्पष्ट नहीं कि यदि यह सुनाई देने वाले रूप में, आंतरिक आवाज़ मे या कोई मनोगत प्रभाव अथवा मानसिक प्रभाव के द्वारा बातचीत करते थे।

परमेश्वर आज भी लोगो से बात करते हैं । पहले, परमेश्वर हम से अपने वचन के द्वारा बात करते हैं (2 तीमुथियुस 3:16-17) । यशायाह 55:11 हमें बताता है ‘‘उसी प्रकार से मेरा वचन भी होगा जो मेरे मुख से निकला है- वह व्यर्थ ठहरकर मेरे पास न लौटेगा, परन्तु जो मेरी इच्छा है उसे वह पूरा करेगा और जिस कार्य के लिए मैंने उसको भेजा है उसे वह सफल करेगा । बाइबल मे परमेश्वर के वचनों का लिखित अभिलेख है, इसमें उद्धार एवम मसीही जीवन निर्वाह करने के लिए जो आवश्यक है, वह प्रयाप्त है । दुसरा पतरस 1:3 घोषित करता है, कि क्योकि उसकी ईश्वरीय सामर्थ ने सब कुछ जो जीवन और भक्ति से सम्बन्ध रखता है: हमें उसी को पहचान के द्वारा दिया है जिससे हमे अपनी ही महिमा और सदगुण के अनुसार बुलाया है।

दुसरा, परमेश्वर प्रभाव, घटनाओं एवम् विचारों द्वारा बातें करते हैं । परमेश्वर हमारे विवके के द्वारा हमारी सही और गलत को समझने में सहायता करते हैं (तीमुथियुस 1:5; 1 पतरस 3:16)। परमेश्वर हमारे मनो के विचारों को अपने विचारों के अनुरूप बनाने की प्रक्रिया में है ताकि हम भी उनका ही सोच-विचार करने लगे (रोमियो 12:2) । हमारे मार्गदर्शन के लिए, हमें परिवर्तित करने हेतु तथा हमारे मसीही जीवन की उन्नति के लिए परमेश्वर हमारे जीवनों में घटनाओं को होने देते है (याकूब 1:25; इब्रानियों 12:5-11) पहला पतरस 1:6-7 हमे स्मरण करता है, ‘‘इस बात पर तुम बहुत प्रसन्न हो, यद्यपि अभी तुम थोड़े समय के लिए तरह तरह की परीक्षाओं के कारण दुख में हो और यह इसलिए है कि तुम्हारा परखा हुआ विश्वास, जो आग में ताय हुए सोने से भी कही अधिक बहुमूल्य है, यीशु मसीह के प्रगट होने पर प्रशंसा और महिमा और आदर का कारण ठहरे’’।

अंततः परमेश्वर सम्भवत: कभी-कभी सुनाई देने वाले रूप में बात करते हैं। वैसे, यह अत्याधिक संदेहपूर्ण है कि ऐसा उतनी बार होता है जितनी बार कई लोग ऐसा होने का दावा करते है। फिर, बाइबल में भी परमेश्वर का सुनाई देने वाले रूप में बात करना, साधारण नही वरन विशेष बात है। यदि कोई दावा करें कि परमेश्वर ने उससे बात की, हमेशा तो अवश्य है कि उसकी बातों की तुलना परमेश्वर के वचन से की जानी चाहिए। यदि परमेश्वर आज तुम से बात करते हैं तो उनके वचन जो उन्होने बाइबल में कहे हैं उससे पूर्ण सहमति में होंगे (तीमुथियुस 3:16-17)। परमेश्वर परस्पर विरोधी बात नहीं करते है।



क्या परमेश्वर आज भी हम से बात करते हैं ?    
 

किसने परमेश्वर को सृजा है ? परमेश्वर कहाँ से आए?


प्रश्न: किसने परमेश्वर को सृजा है ? परमेश्वर कहाँ से आए?

उत्तर:
नास्तिक और सश्यवादीयोंकी ओर से साधारत: यह तर्क होता है कि यदि सब चीजों को कारण की आवश्यकता है तो फिर परमेश्वर को भी अवश्य कारण की आवश्यकता है। निष्कर्ष यह है कि यदि परमेश्वर को कारण की आवश्यकता है, तो परमेश्वर परमेश्वर नहीं (और यदि परमेश्वर परमेश्वर नहीं, फिर कोई परमेश्वर नहीं है)। यह मूल प्रश्न को एक थोड़ा अधिक परिष्कृत रूप है कि ‘‘परमेश्वर को किसने बनाया’’ ? सब जानते हैं जो कुछ है वह उससे नहीं होता जो है ही नहीं। इसलिए, यदि परमेश्वर ‘‘कुछ’’ है, तब अवश्य उनका कोई कारण होना चाहिए, सही है ? ।

यह प्रश्न छलावापूर्ण है क्योंकि यह दबे पाँव इस गलत धारणा को ले आता है कि परमेश्वर कही से आए हैं ? और फिर पूछता है वह कहाँ आए हैं ? उत्तर यह है कि इस प्रश्न का कोई कोई मायने ही नहीं है। यह ऐसा पूछने जैसा है कि नीले रंग की गंन्ध कैसी है ? नीला रंग उस श्रेणी की चीजों में नही है जिसमें गन्ध होती है इसलिए प्रश्न अपने आप में त्रृटिपूर्ण है। इसी रीति से परमेश्वर उस श्रेणी की चीज़ों में नहीं जो सृजी गई है या किसी कारणवंश है। परमेश्वर कारण रहित और असर्जित हैं - वह स्वयं विद्यमान है।

हम यह कैसे जानते हैं ? हम जानते हैं कि जो कुछ है ही नहीं उससे कुछ नहीं हो सकता। इसलिए, यदि कभी ऐसा समय था जब कुछ भी अस्तित्व में नहीं था। फिर कुछ भी कभी अस्तित्व में नहीं आता। परन्तु वस्तुओं का अस्तित्व है। इसलिए जबकि ऐसा कभी नहीं था कि कुछ भी ना हो, कुछ ना कुछ हमेशा अस्तित्व में रहा होगा। वह हमेशा अस्तित्व में रहने वाली चीज़ है। जिसे हम परमेश्वर कहते हैं । परमेश्वर कारण रहित जीव हैं जिस के कारण से बाकि सब कुछ अस्तित्व में आया। परमेश्वर ऐसे सृष्टिकर्ता है जो स्वयं असर्जित हैं जिसने संसार और सब कुछ जो उसमे है उसकी सृष्टि की ।



किसने परमेश्वर को सृजा है ? परमेश्वर कहाँ से आए?